झिलमिलाती बत्तियों से रोशन है घरों की छत,
सर्दी मैं हर रोज कही बारात तो कही दिवाली है,
रेशम का बाज़ार लगा,
सुर्ख दीयों की लाली है,
मिटटी के भगवन सजे,
सडकों पे बिकते है,
जेब मैं जितना चिल्लर था,
हम भी चन्द मिटटी के दिये खरीद लाये,
जब लौ जलाने बेठे तो,
अपने को तनहा पाया,
याद आया वो लड़कपन,
जब न फिक्र का था ही नाम सुना,
न शिकन थी कोई चेहरे पे,
रात मैं दादी का सिरहाना,
और माँ की डांट सवेरे मैं,
गलें लगा कर माँ जब रोया करती थी,
मालूम ना था जवानी मैं इस दिन को भी तर्डपेंगे,
पर गम नहीं,
जब गली मैं सुस्ताता कुत्ता,
अपनी गहरी ऑंखें इन गीली आँखों मैं डालता है,
कहते है वो हलके से,
थोडा प्यार मुझे कर लो,
तो यकायक दिल कह उठता है,
ऐ खुदा, तुने जानवर को इंसान बनाया क्यों नहीं?
2 comments:
Wah wah mitra, mitti ke bhgawaan, batao jaanwar ya insaan
@The li'l Girl...a li'l bit of both :)
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